मुख्यमंत्री ने लिखा कि मध्यप्रदेश द्वारा नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी के समक्ष कई बार आग्रह किया गया कि इस मुद्दे को नर्मदा
भोपाल । कंट्रोल अथॉरिटी की बैठक में रखा जाए, जिस पर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया। वर्ष 2017-18 में गुजरात सरकार को भागीदार राज्यों और मध्यप्रदेश सरकार ने इस शर्त पर मिनिमम ड्रा डाउनलेवल के नीचे इरीगेशन बायपास टनल के माध्यम से अपने हिस्से का उपयोग करने देने पर राजी हुए कि इससे बिजली का जो नुकसान होगा और ट्रिब्यूनल के आदेश के मुताबिक अत्यधिक उपयोग होगा, उसकी भरपाई की जाएगी। बाँध स्तर के नियमन के लिए बनी कमेटी ने प्रावधानों के विरुद्ध जाकर 2018-19 में गुजरात सरकार द्वारा ज्यादा पानी के उपयोग को संज्ञान में नहीं लिया। इससे मध्यप्रदेश के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । तटबंध और लिंक चैनल निर्माण की लागत का भार इकाई-2 से वसूला जाना चाहिए था क्योंकि ये संरचनाएँ वाटर कैरियर सिस्टम की अभिन्न अंग हैं, जो कैनाल हेड पावर हाउस के माध्यम से मुख्य नियमन से संबंधित हैं। इसका भुगतान यूनिट- 3 से वसूला जा रहा है, जिससे मध्यप्रदेश को अनावश्यक वित्तीय भार का सामना करना पड़ता है।
मुख्यमंत्री ने मध्यप्रदेश का मत बताते हुए यह भी लिखा कि पिछले दो दशकों में ट्रिब्यूनल द्वारा तय राहत और पुनर्वास की लागत देने में गुजरात सरकार असफल साबित हुई है। इसे सुप्रीम कोर्ट के 18/10/2000 के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इससे मध्यप्रदेश के वित्तीय हितों पर कुठाराघात हुआ है। गुजरात सरकार और नर्मदा कन्?ट्रोल अथॉरिटी को तत्काल प्रभाव से इन मुद्दों पर विचार करना चाहिए और राहत एवं पुनर्वास के लिए मध्यप्रदेश को पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराना चाहिए ताकि मध्यप्रदेश को अनावश्यक रूप से वित्तीय भार नहीं उठाना पड़े।
ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट के आदेश 18/10/2000 के अनुसार गुजरात सरकार को राहत एवं पुनर्वास का पूरा खर्च देना होगा, हालांकि गुजरात को अभी खर्च देना बाकी है। सुप्रीम कोर्ट ने 8/2/2017 के आदेश में परियोजना प्रभावित परिवारों को 60 लाख रुपए उन्हें देना है। उन्होंने राहत एवं पुनर्वास पैकेज नहीं लिया था। उन्होंने विशेष पुनर्वास अनुदान की केवल पहली किश्त ली थी। निर्णय के समय करीब 681 प्रकरण ऐसे थे। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुमानत: शब्द का उपयोग किया। शिकायत निवारण प्राधिकरण के समक्ष कई प्रकरण लंबित हैं, जिनका उस समय संज्ञान नहीं लिया गया। आज की तारीख में 897 ऐसे प्रकरण हैं, जिन्हें गुजरात सरकार को 69 करोड़ रुपए देना है। जब तक ये दावे निराकृत नहीं हो जाते, राहत एवं पुनर्वास काम को पूर्ण नहीं माना जा सकता।
उल्लेखनीय है कि सरदार सरोवर परियोजना के कई प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं। यह प्रकरण 15/3/2005 और 8/2/2017 की स्थिति में निराकृत हुए हैं। इनमें विस्थापितों की परिभाषा और उनके अधिकार बदल गए। इस परिवर्तन के कारण भौतिक रूप से पुनर्वास का काम चुनौती बन गया है। जब सुप्रीम कोर्ट ने 8/2/2017 को यह निर्णय सुनाया कि परियोजना के विस्थापितों को 31/07/2017 तक डूब क्षेत्र को खाली कर देना चाहिए, तब राहत और पुनर्वास के लिए बहुत थोड़ा-सा समय मिला था। इन स्थलों पर रहने लायक इंतजाम करने के लिए कई काम किया जाना बाकी था, क्योंकि वे करीब एक दशक से उजाड़ पड़े थे। इंदौर हाईकोर्ट और शिकायत निवारण प्राधिकरण, सरदार सरोवर परियोजना ने भी आदेश परित कर इन कामों को युद्ध स्तर पर पूरा करने के निर्देश दिये। युद्ध स्तर पर 352.26 करोड़ रुपए के पुनर्वास काम हाथ में लिए गए। डूब क्षेत्र में लंबे समय से परियोजना प्रभावित 5,370 परिवार रह रहे थे। इन परिवारों को राहत और पुनर्वास स्थलों पर अपना मकान बनाने के लिए समय चाहिये था। इसके अलावा 3,110 गैर परियोजना प्रभावित परिवार भी प्रकरण लंबित होने के दौरान इन स्थानों पर बस गए थे। इनकी देखभाल की भी जरूरत थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बनी स्थिति के कारण इन दोनों श्रेणियों के लोगों को मध्यप्रदेश सरकार को 2,56.50 करोड़ रुपए का अतिरिक्त लाभ देना पड़ा। गुजरात सरकार को मध्यप्रदेश सरकार को यह सब खर्च का भुगतान किया जाना हैं, क्योंकि यह खर्च राहत और पुनर्वास से जुड़ा है। वर्ष 2017 और 2018 में कम बारिश हुई थी। सरदार सरोवर जलाशय पूर्ण क्षमता तक नहीं भरा, परिणाम स्वरूप 2,679 लोग अभी भी डूब क्षेत्र में रहे हैं। उन्हें अभी अन्य स्थान पर स्थापित किया जाना है। इसके लिए समय और संसाधन की जरूरत होगी।